Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोंपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधर-उधर फैली हुई थी। कहीं लुटिया औंधी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मानो धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिए थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोंपड़े की सफाई करती रही। शाम को वही घर जो 'बिन घरनी घर भूत का डेरा' को चरितार्थ कर रहा था, साफ-सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों को रहने के लिए जी ललचाए। भैरों तो अपनी दूकान में चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संधया समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-मैं कितना अभागा हूँ। काश, यह मेरी स्त्री होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरों ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतना सेवा क्यों करती?
मनुष्य-मात्र को, जीव-मात्र को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग-लिप्सु प्राणियां में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल हृदयहीन प्राणियों में शांति-भोग का।
सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।
सूरदास-मिठुआ कहाँ है?
सुभागी-क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया।
सूरदास-तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाए लाता हूँ।
यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा। इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दीं और मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।
सूरदास ने कहा-मिट्ठू, और रोटी लोगे?
मिटठ्-मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।
सूरदास-तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।
यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दीं। सुभागी क्रुध्द होकर मिट्ठू से बोली-दिन-भर साँड की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्कीघर में काम करो, तो पाँच-छ: आने रोज मिलें।
सूरदास-अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जाएगा!
सुभागी-मजूरों के लड़कों का कलेज इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।
सूरदास-जब उसका जी चाहेगा, आप काम करेगा।
सुभागी-जिसे बिना हाथ-पैर हिलाए खाने को मिल जाए, उसकी बला काम करने जाती है।
सूरदास-ऊँह, मुझे कौन किसी रिन-धन का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँ। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जाएगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?
सुभागी-मैं इसे काम पर भेजूँगी। देखूँ, कैसे नहीं जाता। यह मुटरमरदी है कि अंधा माँगे और आँखवाले मुसंडे बैठे खाएँ। सुनते हो मिट्ठू,कल से काम करना पड़ेगा।
मिट्ठू-तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।
सुभागी-मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है? इतना नहीं सूझता कि अंधा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार ही बने रहोगे?
मिट्ठू-तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।
इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चौके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।
जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्र उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरम्भ हुआ, बिस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी झेलेगा।
वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संधया समय उसके हृदय में उगी थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।
सुभागी को नई चिंता सवार हुई-मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंडी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटर-गस करे। मुझे भी कोई बिठाकर न खिलाएगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!
प्रात:काल जब वह झोंपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?
सुभागी ने कहा-हाँ रही तो, फिर!
जमुनी-अपना घर नहीं था।
सुभागी-अब लात खाने की बूता नहीं है।
जमुनी-तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी? इस अंधो की भी मत मारी गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरों गला काट लेनेवाले आदमी हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, चली जा घर।
सुभागी-उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए की बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?
जमुनी-जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।
सुभागी-जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगी? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पाथूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगी, तुम्हारा आटा पिसूँगी। रखोगी?
जमुनी-न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाए रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बद्दू भी बनूँ।
सुभागी-रोज गाली-मार खाया करूँ?
जमुनी-अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?
सुभागी-क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करती हो जमुनी! मिल गया है बैल, जिस कल चाहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिए सिर पर सवार रहता, तो देखती कि कैसे घर में रहती। अभी उस दिन दूध में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थी। दूसरों को उपदेश करना सहज नहीं है। जब अपने सिर पड़ती है, तो आँखें खुल जाती हैं।

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